- उम्मे हस्सान
क़ुदरत ने स्त्री और पुरुष दोनों को एक-दूसरे का पूरक बनाया, लेकिन इन्सान ने अपनी स्वरचित अवधारणा से इन्हें परस्पर विरोधी बना दिया। यही नहीं, स्त्री के अपने अस्तित्व और उससे जुड़े उन कार्यों को, जो उसकी शारीरिक रचना को देखते हुए प्रकृति ने उसके सुपुर्द किए, उन्हें हेय और तुच्छ बताया जाने लगा। दूसरी ओर पुरुष और उसकी स्वाभाविक ज़िम्मेदारियों के अधीन आने वाले कार्यों को श्रेष्ठ समझा जाने लगा।
इस अवधारणा का बीजारोपण ज़ाहिर है कि पुरुषों द्वारा ही किया गया होगा, लेकिन विडंबना यह हुई कि प्राचीनकाल में ‘मंद बुद्धि’ कही जाने वाली स्त्री ने भी इस पर विचार किए बिना इसे ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया और आज की स्त्री अपने आधुनिक होने के तमाम दावों के बावजूद इस भेदभावपूर्ण अवधारणा से पीछा नहीं छुड़ा पाई है, बल्कि सच कहा जाए तो सबसे अधिक वही इस हीनभावना से ग्रस्त दिखाई देती है। इसलिए कि गांव-देहात की सीधी-सादी स्त्रियां तो स्त्री और पुरुष के स्वाभाविक एवं प्राकृतिक अन्तर को मानते हुए अपनी स्थिति को हंसी-ख़ुशी स्वीकार किए रहती हैं कि उनका काम घर संभालना है, और पति का काम बाहर के मामलों को देखना। उन्हें पति की आज्ञा मानने में भी कोई आपत्ति नहीं है, और न वे इसे कोई ग़ुलामी या ज़ुल्म समझते हुए अस्वाभाविक बराबरी की मांग करती हैं।
मुश्किल तो उन तथाकथित आधुनिक महिलाओं के साथ पेश आती है जो दावा तो स्त्री-पुरुष की बराबरी का करती हैं, परन्तु उन्होंने भी पुरुष और उससे जुड़े कार्यों को श्रेष्ठ मान रखा है। इसी लिए उनका सारा ज़ोर हर वक़्त इस बात पर होता है कि स्त्रियां किसी भी मामले में पुरुष से कम नहीं। सवाल यह है कि इस मुक़ाबले की ज़रूरत ही क्यों पेश आती है? स्त्री और पुरुष दोनों की शारीरिक संरचना अलग है, क़ुदरत ने दोनों के कार्यों का निर्धारण अलग किया है, दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं तो फिर स्त्री आख़िर पुरुष जैसा क्यों बनना चाहती है?
क्यों वह यह कहना चाहती है कि वह पुरुष से कम नहीं है? उसने यह क्यों स्वीकार कर लिया कि पुरुष का अस्तित्व, उसकी शारीरिक रचना तथा उससे जुड़े कार्य श्रेष्ठ होने का प्रमाण हैं? और क्यों वह पुरुष के कार्य-क्षेत्र में पदार्पण करने को अपने लिए सौभाग्य और गौरव की बात समझती है?
पुरुष को लेकर स्त्री की यह हीनभावना इतनी बढ़ गई है कि उसे महिलाओं के वे कार्य भी तुच्छ और मामूली लगने लगे हैं, जो पुरुष चाहे भी तो नहीं कर सकता। एक स्त्री द्वारा बच्चे को नौ महीने तक गर्भ में रखना, फिर प्रसव पीड़ा झेलकर और जान पर खेलकर उसे जन्म देना निश्चय ही कोई मामूली काम नहीं है। इसके अलावा बच्चों की शिक्षा-दीक्षा का ज़िम्मा भी स्त्री उठाती है। मगर विडंबना यह है कि हीनभावना से ग्रस्त स्त्री को अपने ये सारे कार्य महत्वहीन लगते हैं, इसलिए कि पुरुष द्वारा किए गए कार्य ही को वह श्रेष्ठ समझ बैठी है या उसे ऐसा समझा दिया गया है। स्त्री-पुरुष समानता का प्रखर रूप जो आज की आधुनिक नारी में देखने को मिल रहा है (और उसके प्रभाव से आम स्त्रियों में भी आ रहा है) वह है पतियों के मुक़ाबले में समानता का दावा।
कुछ महत्वपूर्ण केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) को एक नोटिस भेजा जिसमें आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल ने 10वीं कक्षा के अंग्रेज़ी परीक्षा में पूछे गए एक सवाल पर अपनी अप्रसन्नता व्यक्त करते हुए पैराग्राफ़ को न केवल महिला विरोधी ठहराया, बल्कि बच्चों के अंदर नकारात्मक सोच एवं लैंगिक भेदभाव को बढ़ावा देने वाला कहा है।
सीबीएसई द्वारा पूछे गए सवाल में कहा गया है कि “महिलाओं में स्वतंत्रता और समानता में वृद्धि के कारण बच्चों में अनुशासनहीनता बढ़ गई है। वहीं, जब से पत्नियों ने पति की आज्ञा की अवहेलना करनी शुरू की है तब से बच्चों के अंदर माता-पिता का भय ख़त्म होना शुरू हो गया।”
आयोग ने इस पर अपनी अप्रसन्नता व्यक्त करते हुए इसे न केवल महिला विरोधी ठहराया, बल्कि बच्चों के अंदर नकारात्मक सोच एवं लैंगिक भेदभाव को बढ़ावा देने वाला भी कहा। आयोग के मुताबिक़, जिसने भी यह पैराग्राफ़ लिखा है वह व्यक्ति महिला विरोधी और लैंगिक भेदभाव में विश्वास करने वाला है और महिलाओं से जुड़े मुद्दों और नारीवाद के बारे में उसकी समझ पूरी तरह से विकृत है।
दिल्ली महिला आयोग की प्रतिक्रिया स्वाभाविक ही है, इसलिए इस पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। आयोग को यह लगता है कि यह महिला विरोधी सोच है तो उसे इसका अधिकार है, परन्तु क्या ही अच्छा होता अगर वह आपत्ति जताने के साथ यह भी बताने का कष्ट करता कि बच्चों के अंदर माता-पिता के भय के समाप्त होने का मूल कारण क्या है? और उनमें माता-पिता की अवज्ञा का रुझान क्यों बढ़ रहा है?
सवाल यह भी है कि यदि किसी स्त्री को पति की आज्ञा मानने में अपनी तौहीन महसूस होती है (वह पति जो उसे हर प्रकार की सुरक्षा और सुविधाएं प्रदान कर रहा होता है) और वह इसे स्त्री-पुरुष समानता के ख़िलाफ़ समझती है, तो फिर ऐसे वातावरण में पलने वाले बच्चे माता-पिता की आज्ञा क्यों मानें? उन्हें अगर लगता है कि माता-पिता की आज्ञा मानना ग़ुलामी के समान है, तो इस पर आश्चर्य कैसा? सीबीएसई ने शायद इसी कड़वे सच की ओर ध्यान दिलाने का प्रयास किया था, जिसे महिला विरोधी समझा गया।