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सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने हमारे घर और सपनों को तोड़ा: झुग्गियों में रहने वाली डीयू छात्रा

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हुमा अहमद | इंडिया टुमारो

नई दिल्ली, 6 सितंबर | सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिल्ली की रेलवे पटरियों के पास बनी 48 हज़ार झुग्गियों को तीन महीने में हटाने के फैसले के बाद उन सैकड़ों छात्रों का भविष्य भी इन्हीं झुग्गियों की तरह उजड़ता हुआ प्रतीत हो रहा जिन्होंने इन झुग्गियों में जन्म लिया और संघर्ष करते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय तक पहुंचे और अब पीएचडी की तैयारी कर रहे हैं.

उन्हीं में से एक हैं विजेता राजभर जो दिल्ली विश्वविद्यालय की मास्टर्स की छात्रा हैं और साथ ही पीएचडी की तैयारी भी कर रही हैं मगर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने उन्हें मायूस किया है और घर के साथ अपने करियर को भी टूटता बिखरता देखकर परेशान हैं.

इंडिया टुमारो से बात करते हुए विजेता राजभर कहती हैं कि लॉकडाउन ने पहले हमारे परिवार का रोज़गार छीना और अब हमारा घर छीना जा रहा है जिसके उजड़ने के सरकारी फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने मुहर लगाई है.

इंडिया टुमारो से बात करते हुए विजेता राजभर ने कहा, “कोर्ट के फैसले से हमारा भविष्य दांव पर है. मेरा फाइनल सेमेस्टर का एग्ज़ाम होने को है और ऐसे में बिना किसी पुनर्वास की व्यवस्था किए हमारा घर छीना जा रहा है. कोर्ट ने हमारी झुग्गियों के साथ हमारे भविष्य और स्वप्न पर भी विस्थापन की मोहर लगाई है. शायद मेरा पीएचडी का ख़्वाब अधूरा रह जाए.”

मूल रूप से आज़मगढ़ की रहने वाली और दिल्ली की रेलवे पटरियों के किनारे बसी झुग्गियों में पैदा हुई विजेता राजभर झुग्गियों में ही पली बढ़ी हैं और संघर्ष करते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय तक का सफ़र तय किया है. विजेता वर्तमान में रामजस कालेज से हिंदी साहित्य में फाइनल सेमेस्टर की छात्रा हैं.

क्या है सुप्रीम कोर्ट का फैसला:

ज्ञात हो कि 3 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने नई दिल्ली की 140 किलोमीटर लंबी रेल पटरियों से लगी हुई लगभग 48,000 झुग्गी-झोपड़ियों को तीन महीने के अंदर हटाने का आदेश दिया है. साथ ही न्यायालय द्वारा ये निर्देश भी दिया गया है कि कोई भी अदालत इन्हें हटाने पर स्टे नहीं देगी.

सुप्रीम कोर्ट ने आदेश देते हुए कहा है कि, “सुरक्षा क्षेत्रों में जो अतिक्रमण हैं, उन्हें तीन महीने की अवधि के भीतर हटा दिया जाना चाहिए और कोई हस्तक्षेप, राजनीतिक या अन्यथा, नहीं होना चाहिए और कोई भी अदालत विचाराधीन क्षेत्र में अतिक्रमण हटाने के संबंध में कोई स्टे नहीं देगा.”

झुग्गियों में रहने वालों को लॉकडाउन के बाद दूसरी चोट:

विजेता कहती हैं कि झुग्गियों में रहने वाले लॉकडाउन में बहुत सी कठिनाइयों का सामना कर रहे थे क्योंकि यहां सभी छोटे-मोटे काम करते हैं और लॉकडाउन में काम बंद होने के बाद के हालात ने लोगों की कमर तोड़ दी मगर अब जब खड़े होना चाहे तो सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने हमें लॉकडाउन से बड़ा झटका दिया है.

बहुत मुश्किल होता है झुग्गियों से निकलकर दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ना:

विजेता कहती हैं कि व्यक्ति का बैकग्राउंड कभी उसका साथ नहीं छोड़ता. झुग्गियों से निकलकर बड़े-बड़े क्लासरूम में जाकर सभी ‘वर्ग’ के छात्रों के साथ बैठना इतना सहज नहीं होता. मगर जब इन सब पर हम जीत हासिल कर रहे होते हैं तो अचानक किसी फैसले से सब कुछ उजड़ जाने की कल्पना अंदर तक तोड़ देती है.

एक झटके में दशकों में बना सामाजिक ताना-बाना बिखर जाएगा:

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद एक झटके में दशकों में बना समाज बिखर जाएगा. विजेता कहती हैं कि इंसान कहीं भी रहे उसकी अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा होती है और उसका आत्मसम्मान होता है मगर जब समाज को ही बिखेर दिया जाएगा तो ये समाज की प्रतिष्ठा पर ही कुठाराघात है.

वह कहती हैं, “हमने इसी स्लम में बचपन गुज़ारा है और फिर बड़े होकर समाज में अपनी पहचान बनाई है. जैसा भी है मगर यही हमारा समाज है जहां हम बचपन से रहते आए हैं. 48000 झुग्गियों को गिरा देने का फैसला दशकों में बनाई गई लाखों लोगों की सामाजिक प्रतिष्ठा को चोट पहुंचाने के समान है.”

स्लम में रहने वाले छात्र होंगे प्रभावित:

विजेता कहती हैं कि स्लम में बच्चों के पढ़ने की उचित व्यवस्था नहीं है इसलिए यहाँ रेगुलर स्टूडेंट्स बहुत कम होते हैं. हाईस्कूल या बारहवीं तक ही यहाँ बच्चे मुश्किल से पढ़ पाते हैं तो आगे पढ़ना और ग्रेजुएशन या पोस्ट ग्रेजुएशन तक जाना तो बहुत ही मुश्किल होता है. फिर भी कुछ छात्र इन झुग्गियों से निकल कर पढ़ाई की है मगर जो बच्चे दसवीं या 12 तक की ही पढ़ाई कर रहे हैं उन्हें ये फैसला बहुत अधिक प्रभावित करेगा.

इंडिया टुमारो से बात करते हुए विजेता कहती हैं, “बहुत से छात्र जो प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं उनकी भी शिक्षा प्रभावित होगी. जब घर ही बिखर जाएगा और कोई ठिकाना नहीं तो शिक्षा से तो वंचित होना ही है. ख़ुद मेरा क्या होगा मैं नहीं जानती. मेरे पीएचडी के ख़्वाब का क्या होगा नहीं पता. शायद हमें अपने पैत्रिक गाँव जाना पड़े. अभी तो हमारा कोई आसरा नहीं है.”

पुनर्वास की व्यवस्था की जानी चाहिए:

विजेता कहती हैं कि लाखों लोगों के विस्थापन का फैसला देने से पहले सरकार या न्यायालय को इस बारे में ज़रूर सोचना चाहिए था कि आख़िर लाखों लोग  दशकों में इकठ्ठा किए अपने साज़ो समान और ख्वाबों को लेकर कहाँ जाएंगे? आखिर कहां आसरा लेंगे?

इस फैसले से सबसे अधिक महिलाएं ही प्रभावित होंगी. झुग्गियों में रहने वाली अधिकतर महिलाएं आसपास की कालोनियों में घरों में काम करती हैं. लॉकडाउन के बाद इन सबका काम बंद हो गया था और सभी सरकारी भोजन पर निर्भर थे. लॉकडाउन में सभी के काम छूट गए हैं ऐसे में झुग्गियों को हटाने का फैसला बहुत ही दुखद है. महिलाएं परेशान हैं कि आखिर अपने परिवार को लेकर कहाँ जाएंगी.

पीएचडी की तैयारी कर रही विजेता बहुत दुखी हैं. अपने समाज के पिछड़ेपन से लड़कर विजयी होने की तरफ बढ़ रही विजेता को सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने पराजित कर दिया है. शायद विजेता को पहली बार अपने नाम को सकारात्मक रुख देने के लिए उड़ान भरने की ज़मीन पैरों से खिसकती हुई महसूस हो रही है.

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