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हिजाब या धार्मिक पहचान की वजह से जॉब नहीं देने की सैकड़ों कहानियां हैं जो गुम हो जाती हैं

इन सब चीजों को झेलने के बाद यह अंदाज़ा हो गया कि यह समानता, संवैधानिक अधिकार, महिला सशक्तिकरण यह सब केवल एक ढोंग के सिवा कुछ नहीं. समाज केवल उतनी ही आज़ादी और समानता स्वीकार करता है जितनी उसके बनाए फ्रेम में फिट बैठती है. अगर उस फ्रेम को तोड़ कर कोई नई इबारत लिखना चाहता है तो उसे हर मोड़ पर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है.

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सहीफ़ा ख़ान | इंडिया टुमारो

नई दिल्ली, 4 सितंबर | सोशल मीडिया और विभिन्न न्यूज वेबसाइट के माध्यम से जब मैंने अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी के पत्रकारिता एवं जनसंचार डिपार्टमेंट की छात्रा गज़ाला अहमद के संबंध में पढ़ा तो ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे ज़ख्मों को कुरेद दिया हो, अंदर से एक टीस सी महसूस हुई क्योंकि गज़ाला के साथ जो हुआ उसे मैं इतना झेल चुकी हूं कि अब फर्क ही नहीं पड़ता. शायद गज़ाला भी धीरे-धीरे इसकी आदी हो जाए.

बता दें कि गज़ाला अहमद ने दिल्ली की एक न्यूज़ वेबसाइट में एंकरिंग की जॉब के लिए अप्लाई किया था मगर उन्हें सिर्फ इस आधार पक नौकरी नहीं मिली क्योंकि वह हिजाब पहनती हैं. इसी से सम्बंधित मेरी भी आप बीती और कहानी है.

जब मैंने अपना बचपन का सपना पूरा करने के लिए पत्रकारिता संस्थान में दाखिला लिया तभी से हर पल मुझे खुद के दोस्तों और क्लासमेट के द्वारा यह एहसास कराया जाने लगा कि मैं इस फील्ड के लायक नहीं हूं. मैं बैकवर्ड हूं, मुझ में रिजीडिटी भरी है, सच बताऊं यह एहसास इतनी बार कराया गया कि मैं कई बार खुद सोचने लगी कि मैंने पत्रकारिता में एडमिशन लेकर गलती कर दी और इस कारण मैंने नौकरी करने का सपना ही देखना छोड़ दिया.

धीरे-धीरे मेरा कांफिडेंस लेवल गिरने लगा. जिसका असर यह हुआ कि एक न्यूज़ पेपर में वैकेंसी निकली और उसमें मेरे पूरे क्लास ने अप्लाई किया लेकिन मैंने इसलिए नहीं किया क्योंकि मैं इस लायक नहीं हूं. और इस तरह एक मौका मेरे हाथों से निकल गया.

खैर अल्लाह का नाम लेकर के मैने अपना कोर्स कंपलीट किया और दोस्तों के कहने पर एक न्यूज़ चैनल में इंटर्नशिप करने के लिए गई. वहां इंटरव्यू में सबसे पहले पूछा गया कि यह हिजाब आप उतारेंगी.. जवाब में नहीं सुनने के बाद सीधा जवाब मिला ‘मीडिया में ऐसे काम नहीं चलता.’ एक न्यूज़ पेपर में इंटर्न के लिए गई वहां से बाहर से ही वापस कर दिया गया.

कहते हैं, जहां अंधेरा होता है वहां उम्मीद की किरण भी मौजूद होती है. नफरत की आग में जलने वाले लोगों के साथ समाज में प्रेम और सौहार्द को ज़िंदा रखने वाले लोग भी होते हैं और इसी कारण मुझे अमर उजाला में इंटर्नशिप करने का मौका मिल गया. मैंने वहां से बहुत कुछ सीखा.

फिर शुरू हुआ नौकरी ढूंढने का चक्कर.. वहां भी इसी तरह चीज़ों का सामना करना पड़ा. अगर फोन पर इंटरव्यू हो गया तो ऑफिस पहुंचते ही कुछ बहाना मिल जाता और अगर इंटरव्यू देने जाओ तो ऊपर से नीचे तक देखने के बाद वापस कर दिया जाता.

इसी संघर्ष के दौरान कई जगह नौकरी लगी भी लेकिन हर जगह कोई ना कोई यह एहसास कराने वाला ज़रूर मिल जाता कि ‘आई एम बैकवर्ड’. इसी दौरान मेरी जॉब जब लखनऊ में लग गई मगर स्थिति इतनी खौफनाक हो गई जिसका मुझे अंदाज़ा भी नहीं था. जहां भी रूम देखने के लिए जाती वहां बस एक ही जवाब मिलता ‘मुस्लिम को नहीं देते’ या फिर हिजाब अलाऊ नहीं होगा.

इन सब चीजों को झेलने के बाद यह अंदाज़ा हो गया कि यह समानता, संवैधानिक अधिकार, महिला सशक्तिकरण यह सब केवल एक ढोंग के सिवा कुछ नहीं. समाज केवल उतनी ही आज़ादी और समानता स्वीकार करता है जितनी उसके बनाए फ्रेम में फिट बैठती है. अगर उस फ्रेम को तोड़ कर कोई नई इबारत लिखना चाहता है तो उसे हर मोड़ पर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है.

महिला सशक्तिकरण के नाम पर ढोंग के सिवा कुछ नहीं होता, विशेषरूप से मीडिया सेक्टर में. आप वेस्टर्न ड्रेस और मेकअप में जाओ तो वह उन्हें सशक्तिकरण दिखता है और यदि आप विद आऊट मेकअप और फुल ड्रेस में पहुंच जाओ तो वह लोगों को चुभने लगता है. ‘बहन जी’, ‘आंटी’, ‘छोटी सोच’, ‘लो लेवल’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर मेंटल हारेस करने की भरपूर कोशिश की जाती है और अगर आप गलती से हिजाब में पहुंच गई तो फिर सोने पे सुहागा.

( सहीफ़ा ख़ान पत्रकार हैं और विभिन्न विषयों पर बेबाकी से लिखती रहती हैं. वर्तमान में लखनऊ के एक न्यूज़ पोर्टल से जुड़ी हुई हैं.)

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