- सुफ़ियान अहमद
महिलाओं की आज़ादी सामाजिक समानता और सामाजिक बराबरी के संबंध में अक्सर बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं। लैंगिक समानता और महिलाओं के अधिकारों की बात कही जाती है। कहा जाता है कि महिलाएं सशक्त हो चुकी हैं। हर क्षेत्र में उन्होंने अपना लोहा अपनी मेहनत, हिम्मत, हौसले और बहादुरी से मनवा लिया है। वर्तमान समय में दुनियाभर में ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां महिलाओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज न करा दी हो। यहां तक कि वे शासन और प्रशासन के शीर्ष पदों पर भी विराजमान हैं।
यह सिक्के का एक पहलू है, जिसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। जब हम महिला स्वतंत्रता और सामाजिक बराबरी की बात करते हैं तो कार्य, व्यवसाय और बड़े-बड़े पदों पर महिलाओं की नियुक्ति की दृष्टि से देखा जाए तो कहीं कोई कमी नज़र नहीं आती, लेकिन सवाल उठता है कि क्या महिला सशक्तीकरण इसी का नाम है? क्या समाज में उनके व्यवसाय या नौकरियों में उनकी भर्ती को देखकर हम इसे उनकी उन्नति का पैमाना समझें?
वास्तविकता यह है कि स्वतंत्रता, समानता और प्रगति की यह ग़लत अवधारणा समाज को किस प्रकार असंतुलित कर रही है, इसका अनुमान लगाया जाना आवश्यक है। टूटते घर, बिखरते परिवार, समाज में रिश्तों का कम होता महत्व और महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ते अपराधों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाली परिस्थितियां भविष्य में कैसे समाज की तस्वीर प्रस्तुत करती हैं? क्या इसकी समीक्षा नहीं होनी चाहिए।
महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों के मामले में आज हमारा समाज इतना असंवेदनशील हो चुका है कि अपराधियों को दंड देना तो दूर, महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले बहुत से कृत्यों को अपराध की श्रेणी में भी नहीं रखा जाता है। महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों में लगातार बृद्धि दर्ज हो रही है। साइबर अपराधों के मामले भी आए दिन कभी सुल्ली डील तो कभी बुल्ली बाई के रूप में सामने आते रहते हैं। महिलाओं को अपमानित करने और उनका शील भंग करने वाले असमाजिक तत्व क़ानून की गिरफ़्त से दूर नज़र आते हैं। तथाकथित महिला सशक्तीकरण के खोखले नारे लगाले वाले महिलाओं की स्वतंत्रता और समानता को आख़िर किस नज़र से देखते हैं? इस पर विचार किए जाने की आवश्यकता है।
दरअस्ल, महिलाओं को लेकर स्वतंत्रता, समानता और न्याय की आज जो परिभाषा गढ़ी जा रही है उस पर पश्चिम का प्रभाव है। स्वतंत्रता और समानता का झांसा देकर महिलाओं को बाहर निकाला गया और इसे महिला सशक्तीकरण का नाम देकर हर जगह उनके शोषण के सारे रास्ते खोल दिए गए, जहां उनका आर्थिक शोषण के साथ-साथ शारीरिक शोषण भी देखने को मिलता है।
आज महिलाएं कहीं भी अपने मान-सम्मान, पवित्रता और गरिमा की गारंटी के साथ नहीं रह पा रही हैं। महिलाओं की सुरक्षा कहीं भी सुनिश्चित नहीं है। बात यदि हमारे देश भारत की जाए तो राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार, वर्ष 2021 में महिलाओं के ख़िलाफ़ कुल 31000 आपराधिक मामले दर्ज किए गए, जोकि वर्ष 2014 के बाद से कभी इतने नहीं बढे़ थे। इनमें से पचास प्रतिशत मामले केवल उत्तर प्रदेश में दर्ज किए गए हैं। राष्ट्रीय महिला आयोग (National Commission for Women, NCW) की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2020 की तुलना में वर्ष 20121 में महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों में 30 प्रतिशत की बृद्धि हुई है और यह संख्या बढ़कर 30684 तक पहुंच गई है। इनमें से अधिकतर मामले यौन हिंसा और उनके मान सम्मान से जुड़े हुए थे। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर 22 मिनट पर एक का यौन शोषण होता है।
इसके अलावा महिलाओं से जुड़ी विभिन्न रिपोर्टें बताती हैं कि महिलाओं का मान सम्मान उन्हें नहीं मिल
रहा है। सवाल यह है कि महिलाओं के मान सम्मान और सशक्तीकरण के संबंध में हम कैसी तस्वीर पेश कर रहे हैं? परिस्थितियां जो सवाल खड़े कर रही हैं, उसका हमारे पास क्या जवाब है? दुनियाभर में महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा, अत्याचार और शोषण के बढ़ते हुए रुझानों की रोकथाम के लिए हम कितने प्रतिबद्ध हैं?
बेलगाम पूंजीवाद के बढ़ते प्रभाव तथा बाज़ारवाद ने नारी देह और उसकी सुंदरता के प्रदर्शन को विज्ञापन, बाज़ार और प्रचार का प्रमुख साधन बना दिया है। समाज में इसका प्रभाव इतना बढ़ गया है कि आज नारी की दैहिक सुंदरता और उसके प्रतिमान लडकियों और महिलाओं के आदर्श बनते जा रहे हैं।
दरअस्ल, महिला सशक्तीकरण के नाम पर गढ़े जा रहे ग़लत प्रतिमानों द्वारा ऐसा माहौल बनया गया, जिसमें महिलाओं को उनका सही स्थान और अधिकार नहीं मिल पा रहा है। आज स्थिति यह है तथाकथित, प्रबुद्ध और सभ्य कहे जाने वाले समाजों में ही महिलाओं को अधिक शोषण और अत्याचार का शिकार होना पड़ रहा है। महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन हिंसा के आंकड़ों पर नज़र डालें तो अधिकतर विकसित और स्वतंत्र सोच वाले देश इस सूची में सबसे आगे नज़र आते हैं।
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्टों पर यदि ग़ौर करें तो इस सूची में पहला नाम अमेरिका का आता है। इसी क्रम में यदि शीर्ष दस देशों की बात करें तो सभ्य और प्रबुद्ध कहे जान वाले देशों में क्रमशः दक्षिण अफ्रीका, स्वीडन, भारत, इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस, कनाडा और अंत में श्रीलंका व इथियोपिया जैसे देशों के नाम आते हैं। हैरानी की बात यह है कि परेशान कर देने वाली ऐसी रिपोर्टों के बावजूद इनमें से अधिकांश ख़ुद को विकसित, स्वतंत्र विचार और महिला मुक्ति का अग्रदूत देश मानते हैं। महिला सशक्तीकरण की सतही बातों में आकर महिलाओं ने क्या हासिल किया इस पर गहन चिंतन-मनन और मंथन करने की आवश्यकता है।
महिलाओं का असली सशक्ती-करण उनकी बुद्धि और कौशल से ही हो सकता है, महिला सशक्तीकरण की जब तक ग़लत परिभाषा गढ़ी जाती रहेगी तब तक महिलाओं के सशक्तिकरण की राह आसान होने वाली नहीं है।
वास्तविकता यह है कि ऐसी स्वतंत्रता और समानता जोकि अपने आप में प्रकृति के नियामों के विरूद्ध हो, हासिल करने से सिवाय नुक़सान के फ़ायदा कभी नहीं होता। आज आवश्यकता इस बात की है कि महिलाओं के गरिमापूर्ण अस्तित्व, समानता, सुरक्षा के साथ-साथ उनकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों से जुड़े प्रश्नों पर भी विचार किया जाना चाहिए। समानता के साथ-साथ न्याय के नैसर्गिक सिद्धांतों और नियमों को भी समझने की आवश्यकता है। महिलाओं को असाधारण चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, साथ ही उनकी शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक ज़रूरतें भी अलग-अलग होती हैं। सर्वशक्तिमान ईश्वर और जगत स्रष्टा ने इन्सान होने की हैसियत से पुरुषों और महिलाओं, दोनों को समान दर्जा दिया है। उनकी प्रतिस्पर्धा पुरुषों के साथ नहीं है, क्योंकि शारीरिक और मानसिक रूप से दोनों की प्रवृत्तियों में प्राकृतिक रूप से भेद है। स्त्री और पुरुष दोनों एक दूसरे के पूरक हैं प्रतिद्वंदी नहीं।
केवल सतही मामलों पर हंगामे और महिलाओं को उनकी प्रकृति के विपरीत धारा की ओर धकेलने से महिलाओं का सशक्तीकरण होगा इसे सही मान लेना महिलाओं के साथ अन्याय होगा। आज दुनिया को यह समझने की ज़रूरत है कि सृष्टीकर्ता ने स्त्री एवं पुरुष के बीच जो विभेद किए हैं उनका आधार न्याय है और प्रकृति के इस न्याय को स्वीकर किया जाना चाहिए।