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दिल्ली दंगों में दिल्ली पुलिस की संदिग्ध भूमिका को उजागर करती ‘पोलिस प्रोजेक्ट’ की रिपोर्ट

रिपोर्ट में कहा गया है कि दंगों में दिल्ली पुलिस की चार्जशीट "अनुमान" पर आधारित है न कि "सबूतों" पर. यह भी कहा गया है कि पुलिस ने चार्जशीट में आरोप लगाया है कि "दंगे सीएए / एनआरसी विरोध प्रदर्शनों के दौरान योजनाबद्ध ढंग से बनाए गए षड्यंत्र का हिस्सा थे." हालाँकि यह आरोप किसी सबूत द्वारा नहीं सिद्ध किए गए.

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सैयद ख़लीक़ अहमद एवं अनवारुल हक़ बेग | इंडिया टुमारो

नई दिल्ली, 24 अगस्त | दिल्ली में हुए दंगों में दिल्ली पुलिस की कथित भूमिका पर सवाल उठाती हुई हाल ही में एक रिपोर्ट अन्तराष्ट्रीय संस्था ‘पोलिस प्रोजेक्ट’ द्वारा जारी की गयी है जिसमें दिल्ली पुलिस की जांच पर सवाल खड़ा किया गया है. इस रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि दिल्ली पुलिस की जांच ‘इस्लामोफोबिक’ व्यवहार और भाषा से ग्रसित थी.

ये रिपोर्ट “मैन्युफैक्चरिंग एविडेंस : हाउ दि पुलिस इज़ फ्रेमिंग एंड अर्रेस्टिंग कांस्टीट्यूशनल राइट्स डिफेंडर्स इन इंडिया” शीर्षक से जारी की गई है जिसमें कहा गया है कि दिल्ली पुलिस संविधान रक्षकों को झूठे आरोपों में फंसा रही है और उन्हें गिरफ्तार कर रही है.

ये रिपोर्ट भूतपूर्व आईपीएस ऑफिसर वी एन राय के प्रसिद्ध उद्धरण “राज्य की मर्ज़ी के बिना कोई भी दंगा 24 घंटे से ज़्यादा नहीं चल सकता” के साथ शुरू की गयी है. रिपोर्ट कहती है कि दिल्ली पुलिस “साज़िश” को लेकर एक बेबुनियाद कहानी बना रही है जो दंगा पीड़ित मुस्लिमों और संवैधानिक अधिकारों के लिए प्रदर्शन कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं को दोषी बताती है तथा हिन्दू राष्ट्रवादी भड़काऊ भाषणों को नज़रंदाज करती है.

ये रिपोर्ट भारत के मानवाधिकार रक्षकों और चिंतनशील नागरिकों से बातचीत कर तैयार की गई है. यह रिपोर्ट सत्ता के दुरपयोग, नियत प्रक्रिया का उल्लंघन और दिल्ली पुलिस द्वारा सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों की हिंसा में संलिप्तता बताने के लिए एक साज़िश की कहानी तैयार किए जाने को लेकर साक्ष्य प्रस्तुत करती है.

रिपोर्ट दिल्ली पुलिस द्वारा हिंसा के दौरान कर्तव्य विमुख होने का भी दस्तावेज प्रस्तुत करती है

इस रिपोर्ट में ये भी आरोप लगाया गया है कि दिल्ली पुलिस ने अपनी जांच में हिन्दू राष्ट्रवादियों द्वारा की गई हिंसा के साक्ष्यों को दबाने का काम किया है. साथ ही दंगे में घायल हुए और मारे गए पीड़ितो पर ही दंगो की योजना बनाने का आरोप लगाया गया. आरोप दाखिल करते वक़्त साक्ष्यों का पक्षपातपूर्ण तरीके से इस्तेमाल किया गया और डरा धमका कर झूठे सबूत बनाए गए.

रिपोर्ट के अनुसार, “पुलिस, मुस्लिम युवाओं और जूनियर सामाजिक कार्यकर्ताओं से इस सोच के साथ पूछताछ कर रही है ताकि उन वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के लिए सबूत तैयार किए जा सकें, जिन पर पुलिस ने साज़िश का मास्टरमाइंड होने का आरोप लगाया है.”

रिपोर्ट में कहा गया है कि सीएए और एनआरसी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने वाले वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी  पर अधिक ध्यान इसलिए दिया जा रहा है ताकि असहमति के स्वरों को एक अपराध बताकर नागरिकों को ख़ामोश कर के डर का माहौल तैयार किया जा सके.

दावा किया गया है कि, यह भारत में बढ़ते अधिनायकवाद का एक बड़ा संदर्भ है.

हिंसा में पुलिस की मिलीभगत

दंगो में पुलिस पर मिलीभगत का आरोप लगाते हुए रिपोर्ट कहती है कि जाफराबाद में आईपीएस अफसर की मौजूदगी में बीजेपी नेता कपिल मिश्रा द्वारा दिए गए भड़काऊ भाषण के बाद हिंसा शुरू हुई.

रिपोर्ट के अनुसार, कपिल मिश्रा ने पुलिसकर्मियों से कहा कि वे सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों को हटाएं, नहीं तो वो और उनके लोग खुद कानून को अपने हाथ में लेंगे. मिश्रा के भाषण के  परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर हिंसा हुई जिसमें 53 लोग मारे गए, कई अन्य घायल हुए, सैकड़ों लोग विस्थापित हुए और हज़ारों करोड़ रुपये की संपत्ति नष्ट हो गई जिनमें से ज्यादातर सम्पत्ति मुस्लिमों की थी. फिर भी, पुलिस भाजपा नेता के खिलाफ अब तक प्राथमिकी दर्ज करने में विफल रही है.

हिंसा में पुलिस की भूमिका

हिंसा में पुलिस पर सीधी भागीदारी का आरोप लगाते हुए, रिपोर्ट में पुलिसकर्मियों द्वारा घिरे पांच मुस्लिम युवाओं का उदाहरण दिया गया है जिन्हें बुरी तरह से पीटा गया और उन्हें राष्ट्रगान गाने के लिए कहा गया.

रिपोर्ट में कहा गया है कि मुस्लिमों से उनकी वफादारी निभाने की मांग हिंदू राष्ट्रवाद के आधार पर की जाती है. मुस्लिमो से अपनी देशभक्ति सिद्ध करने की अक्रामक मांग हिन्दू राष्ट्रवादी सोच से आती है जो मुसलमानों को गद्दार मानती है.

रिपोर्ट में दिल्ली के फैज़ान की मौत की तुलना अमेरिका में हुई जॉर्ज फ्लॉयड की मौत से की गई है

यह रिपोर्ट, पुलिस हिरासत के दौरान पीट पीट कर मार दिए गए एक मुस्लिम युवा फैज़ान की तुलना अमेरिका के मिनियापोलिस के जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस हिरासत के दौरान हुई मौत से करती है जबकि इन दोनों घटनाओं के दौरान फ़ैजान और फ्लॉयड दोनों निहत्थे थे. रिपोर्ट कहती  है इन दोनों मामलों में फ़र्क यह है कि जहां फ्लॉयड को मारने वाले पुलिस अधिकारी पर तीन दिनों के भीतर हत्या का आरोप लगाया गया था और दोषी पुलिसकर्मी व उसके तीन सहयोगियों को सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था वहीं  फ़ैज़ान के मामले में तो दोषी पुलिसकर्मियों पर आरोप भी नहीं लगाए गए.

रिपोर्ट में दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ ज़फरुल इस्लाम खान का भी हवाला दिया गया है, जिन्होंने दिल्ली पुलिस पर आरोप लगाया था कि “उन्होंने (दिल्ली पुलिस) कुछ भी नहीं बचाया. उन्होंने लोगों और उनकी संपत्तियों को जलाने की अनुमति दी, दंगाइयों द्वारा घरों को नुकसान पहुंचाने और यहां तक कि उन्हें विस्फोट करने की भी अनुमति दी … पुलिस को अपने कृत्यों के लिए जवाब देना होगा – इस बारे में कोई दो राय नहीं हो सकती है.”

चार्जशीट अनुमानों पर आधारित है न कि सबूतों पर

रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि दंगों में दिल्ली पुलिस की चार्जशीट “अनुमान” पर आधारित है न कि “सबूतों” पर. इसमें कहा गया है कि पुलिस ने चार्जशीट में आरोप लगाया है कि “दंगे सीएए / एनआरसी विरोध प्रदर्शनों के दौरान योजनाबद्ध ढंग से बनाए गए षड्यंत्र का हिस्सा थे.” हालाँकि यह आरोप किसी सबूत द्वारा नहीं सिद्ध किए गए.

बिना सबूतों के बड़े पैमाने पर अनुमान लगाया जाना पुलिस द्वारा बनाई गई कहानी के पीछे छुपे पुलिस के इरादों पर सवाल खड़े करता है.

पुलिस प्रोजेक्ट रिपोर्ट इस बात की और इशारा करती है कि क्या हिन्दू राष्ट्रवादी दलों द्वारा प्रदर्शनों को देश विरोधी कहकर निशाना बनाया जाना असहमति के स्वरों का अपराधीकरण करने का प्रयास है.

रिपोर्ट कहती है कि, “ऐसा लगता है कि प्रदर्शनकारियों के विरुद्ध बिना किसी प्राथमिक सबूत के पुलिस तयशुदा इरादे के तहत सीएए प्रदर्शनकारियों और प्रोटेस्ट के आयोजकों को आरोपी की तरह प्रस्तुत कर रही है.”

पुलिस द्वारा हिन्दू राष्ट्रवादियों  द्वारा कि हुई हिंसा के सबूतों को छुपाने के प्रयास

पुलिस पर हिंदू राष्ट्रवादियों द्वारा की गई हिंसा के साक्ष्य को दबाने का आरोप लगाते हुए ये रिपोर्ट भाषण देने के लिए भाजपा नेताओं कपिल मिश्रा, अनुराग ठाकुर और परवेश वर्मा के खिलाफ एफआईआर दर्ज न कर पाने की पुलिस की विफलता को उजागर करती है।

रिपोर्ट में दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति मुरलीधर के बयान भी शामिल हैं जिन्होंने भड़काऊ भाषणों को अपराध के तौर पर न लेने पर पुलिस पर सवाल उठाया था.

रिपोर्ट ये कहती है कि सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के विरुद्ध हिंसा के निराधार सबूतों के विपरीत 125 सदस्यों के कट्टर हिन्दू नामक एक वॉट्सएप ग्रुप ‘कट्टर हिन्दू एकता’ पर हिन्दू कार्यकर्ताओं का कुबूलनामा हिंसा के प्रोत्साहन और शह देने में हिन्दू राष्ट्रवादियों की भागीदारी का खुला सबूत है. फिर भी, पुलिस सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों पर हिंसा के षड्यन्त्र का आरोप लगा रही है.

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